Monday, 20 July 2015

मंजिल


 
ये कैसी जगह ले आई है जिंदगी , जहाँ भटकती राहों को मंजिल मिल गयी। 
हर पल है जैसे खुशनुमा सपना, मैं मीरा सी दीवानी बन गयी।  
और उस खुदा से कुछ न चाहिए , इतनी ख़ुशी मिली के दुनिया जन्नत बन गयी। 
उस अजनबी शख्स के प्रथम स्पर्श से , एक नयी पहचान मिल गयी। 
आँखों में पले सपने हकीकत बन गए , यकीन नहीं आता कि आज मैं  ''दुल्हन ''बन गयी।

पुरूष


जिंदगी के हर पड़ाव पर मजबूत दीवार सा है वो।
हर तकलीफ को सहने के लिए तैयार सा है वो।
अपने परिवार को मुश्किलों से बचाने पहाड़ सा है वो।
अपनी इच्छाओं को साख पर रखकर अपनों के लिए इत्मीनान सा है वो।
सब सो सके आराम से इसलिए खुद को जगाता है वो।
घबरा न जाये उसके अपने सो बहुत कुछ छिपाता है वो।
कर्तव्यनिर्वाह मैं हो न जाये चूक इससे घबराता है वो।
अपनों की ख़ुशी की खातिर त्यौहार में भी काम पे जाता है वो।
माँ की शिकायत, बीवी की उलाहना सुनकर भी मुस्कुराता है वो।
उसे भी दर्द होता है , तकलीफ होती है रोना आता है ,
पर रो नही सकता क्योकि ''पुरूष'' जो है वो।
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